बुधवार, 17 सितंबर 2025

पेरियार और उत्तर भारत के साथ उनका संबंध

 

विद्या भूषण रावत 

 

हालांकि पेरियार दलित बहुजन कार्यकर्ताओं के बीच एक जाना-माना नाम है, लेकिन यह भी सच है कि उत्तर भारत के अधिकांश लोगों को पेरियार के विशाल कार्य और उनके आत्म-सम्मान आंदोलन की ताकत के बारे में बहुत कम जानकारी है। पेरियार के बारे में दो तरह की कहानियाँ प्रचलित हैं, जो या तो उनकी महिमा करती हैं या उनकी निंदा करती हैं। एक ओर, हिंदुत्व समर्थक उन्हें राम-विरोधी और हिंदी-विरोधी के रूप में दोषी ठहराते हैं और आरोप लगते है कि उन्होंने हमारे देवी देवताओं की मूर्तियों का अपमान किया और हमारी भाषा का विरोध किया। महत्वपूर्ण बात यह कि कई बहुजन बुद्धिजीवी उनके कार्यों को पूरी तरह जाने बिना धर्म के प्रश्न पर उनके उठाए सवालों को लेकर उनका महिमामंडन करते हैं। वे सभी पेरियार के द्रविड़ लोगों की चेतना को जागृत करने और सभी के लिए आत्म-सम्मान प्रदान करने में उनके ऐतिहासिक योगदान को, उनकी राजनीति और महिलाओ के प्रश्नों पर उनके विचारों को भी पूरी तरह से नहीं समझते। पेरियार को केवल चुटकुलों के तौर पर लिखी गई किताबों के जरिए आब ईमानदारी से नहीं समझ सकते। पेरियार का साहित्य सभी तमिल है और अब अंग्रेजी मे बहुत कुछ छप रहा है। उनके आंदोलनों को पृष्ठभूमि को समझे बिना उनको सही प्रकार से नहीं समझ सकते।

मुझे इस बात की हार्दिक प्रसन्नता है कि पिछले तीस वर्षों मे मै न केवल तमिलनाडु लगातार गया अपितु मुझे वहा के बहुत से बुद्धिजीवियों और आत्म सम्मान आंदोलन के लोगों से मिलने के अवसर मिले और जिसके बाद मै यह कह सकता हूँ कि मैंने पेरियार को ईमानदारी से समझने की कोशिश की है। इस संदर्भ मे मैंने लगातार लिखा भी और द्रविड आंदोलन के दो प्रमुख व्यक्तियों का मैंने विस्तृत बातचीत कर अपनी समझ को और बढ़ाया है। 






पेरियार का उत्तर भारत के साथ संपर्क 1904 में काशी की उनकी यात्रा से शुरू हुआ, जहाँ उन्हें स्थानीय पुजारियों द्वारा जातिगत भेदभाव के कारण अपमान का सामना करना पड़ा। लेकिन एक राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में पेरियार का औपचारिक संपर्क 1944 में कानपुर की यात्रा से शुरू हुआ, जब वे 29 दिसंबर से 31 दिसंबर, 1944 तक अखिल भारतीय पिछड़ा गैर-ब्राह्मण हिंदू सम्मेलन में भाग लेने गए थे। पेरियार को उत्तर भारत में हो रही गतिविधियों, विशेष रूप से बाबा साहेब आंबेडकर के नेतृत्व वाले आंदोलन की अच्छी जानकारी थी। बहुत कम लोग जानते हैं कि पेरियार ने बाबा साहेब की असाधारण कृति *जाति का विनाश* (*Annihilation of Caste*) का तमिल में अनुवाद किया था। श्री एस. वी. राजदुराई ने मेरे साथ अपनी शानदार बातचीत में पेरियार के उत्तर भारत से संबंधों के इन आश्चर्यजनक तथ्यों को सामने लाया, जो हाल ही में प्रकाशित पुस्तक *पेरियार: जाति, राष्ट्र और समाजवाद* में शामिल हैं। पेरियार 'जात-पात तोड़क मंडल' के उपाध्यक्ष भी थे, लेकिन उन्होंने जातिगत भेदभाव के कारणों पर अपनी स्थिति नहीं बदली, जो उनके अनुसार वर्ण व्यवस्था से उत्पन्न होते थे। इसके कारण पेरियार भी जात पात तोड़क मण्डल से अलग हो गए थे।  मैंने श्री राजदुराई के साथ पेरियार के उत्तर भारतीय जुड़ाव का मुद्दा उठाया था, और उन्होंने इन तथ्यों को लोगों तक पहुँचाने के लिए कड़ी मेहनत की। 

पेरियार 8 फरवरी, 1959 को रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आरपीआई) और उनके प्रशंसकों जैसे छेदी लाल साथी और अन्य के निमंत्रण पर कानपुर गए। पेरियार ने लखनऊ के गंगा प्रसाद मेमोरियल हॉल में आरपीआई कार्यकर्ताओं की एक विशाल सभा को संबोधित किया, जहाँ डॉ. छेदी लाल साथी ने उनके भाषण का अनुवाद किया। समाजवादी नेता राज नारायण ने भी उनके सम्मान में एक चाय पार्टी आयोजित की। पेरियार ने लखनऊ, कानपुर, दिल्ली, बंबई, कलकत्ता और पुणे में विभिन्न मंचों पर बोलना जारी रखा। उन्होंने बाबा साहेब आंबेडकर के निधन के बाद रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया को मजबूत करने की कोशिश की और उनके विभिन्न सभाओं को संबोधित किया। जो लोग पेरियार के खिलाफ बोलते हैं, उन्हें यह तथ्य जानना चाहिए कि पेरियार बाबा साहेब के दर्शन से अत्यधिक प्रभावित थे, उनकी प्रशंसा करते थे और उनके निधन के बाद उनके कार्य को बढ़ावा दिया। 

पेरियार ने केवल राजनीतिक सभाओं में ही नहीं बोला। उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय में भी भाषण दिया, जहाँ शुरू में उनके खिलाफ प्रदर्शन हो रहे थे, लेकिन बाद में छात्रों ने सामाजिक न्याय, ओबीसी और दलित आरक्षण पर उनके विचारों को समझा और उनकी सराहना की। डॉ. के. वीरमणि ने 11 फरवरी, 1959 को लखनऊ विश्वविद्यालय परिसर में उनके भाषण का अनुवाद किया। पेरियार ने 25 फरवरी, 1959 को मुंबई में बाबा साहेब आंबेडकर द्वारा स्थापित सिद्धार्थ कॉलेज में भी छात्रों को संबोधित किया। वे 1968 में फिर से लखनऊ आए।

सामाजिक आंदोलन 'अर्जक संघ'  के प्रमुख सदस्यों मे से एक  मानववादी तर्कवादी ललई सिंह यादव उत्तर भारत मे  पेरियार के सबसे उत्कृष्ट प्रशंसकों में से एक थे। । अर्जक संघ प्रबुद्धता, तर्कवादी सोच को बढ़ावा देता था और बहुजन समुदायों को कर्मकांडों और अंधविश्वासों के खिलाफ जागरूक करता था। ऐसे सभी विचारशील लोगों के लिए, पेरियार और बाबा साहेब आंबेडकर उनके नायक थे। ललई सिंह यादव ने पेरियार के रामायण पर कार्य का अनुवाद ‘सच्ची रामायण’ शीर्षक से किया। उत्तर प्रदेश सरकार ने इस पुस्तक पर प्रतिबंध लगा दिया और 9 दिसंबर, 1969 को इसकी प्रतियाँ जब्त कर लीं। अर्जक संघ और ललई सिंह यादव ने इस घटना की निंदा की और 'लोगों की भावनाओं को ठेस पहुँचने के कारण कानून और व्यवस्था की समस्या' के बहाने सरकारी आदेश को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनौती दी, जिसने पुस्तक पर प्रतिबंध को अवैध घोषित कर दिया। उत्तर प्रदेश सरकार ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के इस आदेश के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील की। 16 सितंबर, 1976 को सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया, जिसमें उच्च न्यायालय के आदेश को बरकरार रखा और सरकार की समीक्षा याचिका को खारिज कर दिया। जस्टिस कृष्णा अय्यर, जस्टिस पी. एन. भगवती और जस्टिस सैयद मुर्तजा ने यह फैसला सुनाया। फैसला सुनाते हुए जस्टिस अय्यर ने कहा, 'एक सरकार हमेशा अपने समर्थकों की प्रशंसा से ज्यादा अपने विरोधियों की आलोचना से सीख सकती है। उस आलोचना को दबाना, कम से कम, अंततः अपने विनाश की तैयारी करना है।' 

सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला पेरियार के 97वें जन्मदिन की पूर्व संध्या पर तर्क और मानवतावाद के प्रतीक के लिए सबसे अच्छी श्रद्धांजलि थी। यह वह दौर था जब उत्तर प्रदेश और अन्य जगहों पर आरपीआई वस्तुतः राजनीतिक रूप से विलुप्त हो रही थी और विभिन्न गुटों में बँट गई थी, लेकिन अर्जक संघ मानवतावादी मूल्यों और सामाजिक परिवर्तन के लिए एकमात्र गैर-राजनीतिक आंदोलन था। इसने उत्तर प्रदेश में आम लोगों के बीच पेरियार के कार्य को फैलाने की विरासत को आगे बढ़ाया। चूंकि अर्जक संघ अंधविश्वास-विरोधी था इसलिए पेरियार का तर्कवाद और धर्म पर उनकी टिप्पणियों ने उन्हें प्रभावित किया। लेकिन यह भी एक कटु सत्य है कि अर्जक संघ के इर्द-गिर्द पेरियार की छवि मुख्य रूप से मूर्ति भंजक के रूप में बनाई गई। सामाजिक न्याय, महिलाओं की मुक्ति, आत्म-सम्मान विवाह, और समानुपातिक प्रतिनिधित्व जैसे उनके मुद्दे अभी भी राजनीतिक और सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं के बीच व्यापक रूप से प्रचलित नहीं हैं। हालांकि अर्जक संघ अभी भी कार्य कर रहा था, लेकिन रामस्वरूप वर्मा और ललई सिंह यादव जैसे नेताओं के निधन के बाद इसकी सक्रियता में कमी आई। 

1990 में जब वी. पी. सिंह प्रधानमंत्री थे और उन्होंने केंद्रीय सरकारी नौकरियों में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए 27% आरक्षण लागू करने को स्वीकार किया, तब उत्तर भारत में एक नया आंदोलन बन रहा था। आंबेडकर, फुले और पेरियार दलित बहुजन कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों के बीच बेहद लोकप्रिय हो गए। आंबेडकरवादी पेरियार और उनके कार्यों के बारे में लिख रहे थे। इसके समानांतर बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) का उदय हुआ, जिसने रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के हाशिए पर जाने से उत्पन्न शून्य को भरा। उत्तर प्रदेश में आरपीआई के 'अवसान' ने 1980 के दशक में बीएसपी के विकास को जन्म दिया और 1993 में पार्टी ने समाजवादी पार्टी के साथ ऐतिहासिक गठबंधन किया और उत्तर प्रदेश में सत्ता में आई। 'मिले मुलायम कांशीराम: हवा हो गए जयश्रीराम' जैसे नारे इस बात का प्रतीक थे कि मुलायम और कांशीराम के एक होने पर जयश्रीराम का नारा बेकार हो जाएगा। उस समय बीएसपी उत्तर भारत में आंबेडकर और पेरियार के बारे में आक्रामक रूप से बोल रही थी। एसपी-बीएसपी गठबंधन नेताओं की महत्वाकांक्षाओं और विरोधाभासों के कारण टूट गया। बीएसपी ने उत्तर प्रदेश में बीजेपी के समर्थन से सरकार बनाई। यह एक बड़ा झटका था, लेकिन लोगों ने इसे तब तक स्वीकार किया जब तक उन्हें लगा कि उनके 'हित' खतरे में नहीं हैं। सत्ता में आने के बाद बीएसपी ने सबसे पहले दलित बहुजन प्रतीकों की बड़ी मूर्तियाँ स्थापित करने और लखनऊ शहर के केंद्र में 'पेरियार मेला' आयोजित करने की घोषणा की। लखनऊ में पेरियार मेला आयोजित करने की घोषणा ने गठबंधन सहयोगी बीजेपी को नाराज कर दिया और उन्होंने पेरियार को उत्तर-विरोधी और राम-विरोधी बताते हुए विरोध किया, और सरकार से समर्थन वापस लेने की धमकी दी। तब से बीएसपी अपने राजनीतिक कार्य में पेरियार की तस्वीर का उपयोग नहीं करती। शुरुआती चरणों में बीएसपी कार्यकर्ता पेरियार के बारे में बहुत बोलते थे, लेकिन बाद में राज्य की राजनीतिक वास्तविकताओं ने उन्हें पेरियार को पूरी तरह छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया। अब बीएसपी किसी भी तरह से पेरियार की स्मृति से जुड़ना नहीं चाहती। उत्तर भारत में अन्य पार्टियों, विशेष रूप से समाजवादी पार्टी, जनता दल या आरजेडी की स्थिति और भी गंभीर है, क्योंकि वे अपने समुदायों के वोट खोने का जोखिम नहीं उठा सकतीं, इसलिए वे पेरियार से बचती हैं। ये पार्टियाँ वास्तव में समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया और जय प्रकाश नारायण से प्रेरित लोगों द्वारा बनाई गई थीं जो समय समय पर हिन्दुत्व के साथ समझौता कर चुकी थी और जिनके पास ब्राह्मणवादी संस्कृति का कोई विकल्प नहीं था जो अंबेडकर फुले और पेरियार ने दिया था। इसलिए उत्तर भारत मे पेरियार की बात राजनीतिक रूप से केवल आरपीआई या बीएसपी ने ही की । सामाजिक तौर पर उत्तर भारत मे अर्जक संघ'  और फिर बामसेफ ने और अन्य आंबेडकरवादी संस्थाओ और व्यक्तियों ने ही पेरियार को जन जन तक पहुंचाया। इसलिए यह बात स्पष्ट है कि उत्तर भारत में पेरियार को पिछड़े समुदायों ने न हीं पढ़ा या बढ़ावा दिया क्योंकि इसके लिए  'सामाजिक न्याय' की राजनीति का दावा करने वाली राजनीतिक पार्टियों की अवसरवादिता और विचारहीनता जिम्मेवार है। इसके अतिरिक्त ऐसे बुद्धिजीवी भी जिम्मेवार है जिन्होंने पेरियार का उपयोग केवल धर्म पर अपनी रसीली टिप्पणियों के लिए किया और उनके आत्म-सम्मान आंदोलन के विशाल कार्य को अनदेखा किया  जिसने द्रविड़ भूमि में पिछड़े समुदायों और दलितों को सत्ता संरचना में लाया। आंबेडकर, फुले और पेरियार क्रांतिकारी प्रतीक थे, जिन्होंने ब्राह्मणवादी वर्चस्व को चुनौती दी, जिसे अधिकांश राजनीतिक पार्टियाँ अभी भी चुनौती देने के लिए तैयार नहीं हैं, फिर भी सामाजिक आंदोलन, तर्कवादी, मानवतावादी कार्यकर्ता, बहुजन सामाजिक-सांस्कृतिक नेता पेरियार और तमिलनाडु में द्रविड़ जनता को सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से सशक्त करने के उनके विशाल कार्य से प्रेरित रहते हैं। 

श्री एस. वी. राजदुराई द्वारा पेरियार पर किया गया व्यापक कार्य सभी को  अवश्य पढ़ना चाहिए। पेरियार: जाति, राष्ट्र और समाजवाद: विद्या भूषण रावत के साथ एस. वी. राजदुराई की बातचीत’, नामक पुस्तक, जो पीपुल्स लिटरेचर पब्लिकेशन, मुंबई द्वारा प्रकाशित की गई है और अमेजन और फ्लिपकार्ट पर उपलब्ध है मे पेरियार के उत्तरभारत संपर्क, दलित छुआछूत, जातिवाद, भूमिसुधार, साम्यवाद, अंबेडकर, संविधान आदि प्रश्नों पर पेरियार के विचारों को व्यापक तौर पर प्रस्तुत किया गया है।  जो लोग पेरियार के उत्तर भारतीय जुड़ाव के साथ-साथ दलितों, अस्पृश्यता, भूमि प्रश्न और साम्यवाद पर उनकी समझ के कई अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों के बारे में जानने के इच्छुक हैं, उन्हें इस पुस्तक में अत्यंत दुर्लभ और महत्वपूर्ण जानकारी मिलेगी। 

पेरियार सभी मानवतावादियों के दिल और दिमाग को प्रज्वलित करते हैं। उनकी प्रबुद्धता और तर्कवादी मानवतावादी विचारधारा की भावना हर जगह बढ़े।

रविवार, 31 अगस्त 2025

हिमालय पर हम सभी के लिए एक गंभीर चिंतन का समय


विद्या भूषण रावत  


हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, जम्मू और कश्मीर, और पंजाब में भारी बारिश के कारण हुई भयंकर तबाही केवल एक मौसमी त्रासदी नहीं है—यह प्रकृति की चेतावनी है। फिर भी, इस संकट की विशालता को मुख्यधारा के मीडिया में मुश्किल से ही जगह मिली है। यह चुप्पी चिंताजनक है। इन राज्यों में जो कुछ हो रहा है, वह राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा, लापरवाह तथाकथित “विकास” परियोजनाओं को तत्काल रोकने और हमारे पहाड़ों के भविष्य के बारे में व्यापक लोकतांत्रिक बहस की मांग करता है। दुख की बात है कि हमारी राजनीतिक बिरादरी, सभी दलों में, ऐसे मूलभूत सवालों से निपटने की कोई रुचि नहीं दिखाती।  इसके बजाय, हमें केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी जैसे  मंत्रियों की शर्महीन गौरवपूर्ण अनुभूति  देखने को मिलते हैं, जो हिमालय की इस भयानक त्रासदी मे भी बड़े गर्व से केदारनाथ में रोपवे परियोजना की घोषणा करते हैं और पूरे क्षेत्र मे हो रही घटनाओ पर शर्मनाक तरीके से चुप रहते हैं और अपनी घोषणा को ऐसे प्रस्तुत करते हैं जैसे कि यह पहाड़ों की समस्या का कोई  बहुत बड़ा समाधान हो। इस बीच, सरकार उत्तरकाशी-गंगोत्री राजमार्ग को  स्थानीय समुदायों और पर्यावरण विशेषज्ञों की बार-बार दी गई चेतावनियों को नजरअंदाज करते हुए  चौड़ा करने की अनुमति दे चुकी  है। इस तरह का व्यवहार और  तथाकथित 'विकास' कार्यों का अहंकार पर्यावरणीय बुद्धिमत्ता और इन नाजुक क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की आवाजों के प्रति खतरनाक उपेक्षा को दर्शाता है जो लोकतंत्र और पर्यावरण दोनों के लिए शुभ नहीं है। 

हिमालयी आपदा को केवल “जलवायु संकट” कहकर खारिज नहीं किया जा सकता। बेशक, जलवायु परिवर्तन वास्तविक है और इसके लिए तत्काल प्रतिक्रिया की आवश्यकता है, लेकिन इसे एकमात्र बहाना बनाना हमारे अपने पापों को धो देना है। इसकी गहरी वजह विकास के नाम पर राज्य की  उन नीतियों में निहित है जिसका एक मात्र उद्देश्य मुनाफा कमाना है चाहे पहाड़ों या यहा की नदियों और लोगों का जो भी कुछ हो। दुर्भाग्यवश, स्थानीय समुदायों और परम्पराओ को नजरंदाज कर ऐसी नीतिया पहाड़ों में लागू की जा रही हैं जिन्हे हम न केवल पहाड़ विरोधी कहेंगे अपितु सांस्कृतिक तौर पर भी पहाड़ी परम्पराओ को खोखला कर बाहर से  आयातित गंदगी को संस्कृति के नाम पार थोपा जा रहा है। पर्यटन के 'राष्ट्रीयकरण' के चलते पहाड़ों मे बढ़ती संख्या और उनके लिए नई संशधनों की आवश्यकता ने पहाड़ों की प्रकृति पर भयानक दबाब डाला है। आखिर इन सबके लिए व्यवस्थाएं कैसी होंगी लेकिन सत्ताधारी इस पर बात करने के तैयार नहीं और हर एक समस्या पर अपने चालाकी के 'नुस्खे' बताकर जनता को गुमराह कर रहे हैं। वही लोग नए समाधान के नाम पर ठेके ले रहे हैं जो यहा की समस्याओ के लिए जिम्मेदार हैं। 

ये समझना आवश्यक है कि कैसे पहले 'विकास' का नाम लेकर हर एक काम किया गया। जो लोग इन सवालों को पूछ रहे थे उन्हे खलनायक बना दिया गया।  कहा गया कि बांध बनाकर ऊर्जा प्रदेश बनेगा हालांकि ये भी सभी को पता है कि सारे गांवों मे आज भी बिजली नहीं पहुंची है। लेकिन  विकास के नाम पर  चलाई जा रही ऐसी  नीतियां जिनमें ऊपरी हिमालय में बड़े बांधों का निर्माण शामिल है, जिन्हें “ऊर्जा अधिशेष” राज्य बनाने के नाम पर उचित ठहराया गया। ये परियोजनाएं लालच के अलावा और कुछ नहीं हैं क्योंकि इन्हे अपने 'प्रबंधकों' और 'ठेकेदारों' की कमाई का जरिया बनाया गया। अन्यथा हम सब जानते है कि ये सभी परियोजनाएं  नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को बाधित करती हैं और फिर प्राकृतिक  प्रतिक्रिया को आमंत्रित करती हैं। आज घाटियों को चीरती नदियों की उग्रता हमें प्रकृति की बेजोड़ शक्ति की याद दिलाती है। तकनीक, चाहे कितनी भी उन्नत हो, प्रकृति के इस रौद्र रूप के  र सामने असहाय नजर आती है। उत्तराखंड, हिमाचल, पंजाब, जम्मू कश्मीर, लद्दाख की घटनाए अब चिल्ला चिल्ला कर कह रही है कि सुधार जाओ और प्रकृति से दुश्मनी न करो। अब हमारे आगे बढ़ने का एकमात्र रास्ता हिमालय का सम्मान करना है, रुककर उन विनाशकारी विकास नीतियों पर पुनर्विचार करना है जो उन्हें केवल  एक प्राकृतिक संसाधन के रूप में देखती हैं जिसका उद्देश्य मात्र मुनाफा कमाना है। ऐसे सभी विचारों को अब छोड़ देना चाहिए क्योंकि हिमालय कि सुनामी मैदानी क्षेत्रों को भी नहीं छोड़ने वाली। ये प्रश्न केवल हिमालय का नहीं है। हमारी नदियों ने यदि अपना असली रूप दिखा दिया तो मैदान भी नहीं बचेंगे। इसलिए आज गंभीर चिंतन की जरूरत है। हिमालय और उससे निकलने वाली गाड़ गदेरो का सम्मान करना सीखो। शायद प्राचीन काल मे हमारे पुरखे नदियों, पहाड़ों, गदेरो को पूजते थे तो इसलिए क्योंकि उनकी जिंदगी इन्ही के दम पर थी। आज हमने उनको खत्म कर कमाई करने का धंधा बनाने की सोची और सभी ने अपना रौद्र रूप दिखा दिया कि हमारी मशीन और सत्ता का नशा केवल असहाय दिखा। क्या अभी भी समझ नहीं आया। 

डुखाद बात यह है कि हम आज  एक “विकास माफिया” के  उदय को देख रहे  है, जो लोगों को झूठे सपने बेच रहा है और क्षेत्र की प्राकृतिक विरासत को लूट रहा है। एक कल्याणकारी राज्य हिमालय को ए टी एम मशीन की तरह नहीं देख सकता। ये पहाड़ हमारे रक्षक हैं, उनकी नदियां हमें जीवन देती हैं, और उनके पारिस्थितिकी तंत्र पूरे भारत में जीवन को संतुलित करते हैं। फिर भी, हम नदियों को सुखाने, उनमें कचरा डालने, जलविद्युत परियोजनाओं के लिए पहाड़ों को विस्फोट करने, और रेलवे लाइनों व मेगा-ब्रिजों का बोझ डालने में क्यों लगे हैं? आस्था के नाम पर लाखों तीर्थयात्रियों को, जो उनकी भारी संख्या मे उपस्थिति के पर्यावरणीय प्रभाव की परवाह नहीं करते, पहले से ही नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र को अभिभूत करने के लिए क्यों प्रोत्साहित किया जा रहा है? लाखों की संख्या मे तीर्थ यात्रियों का आना यहा के मौजूदा प्रबंधन को कैसे प्रभावित कर रहा है इस पर चिंतन करने की आवश्यकता है। आखिर एक दिन मे इन पर्वतीय क्षेत्रों मे लोगों के आने से हमारी नदियों, बुगयालों और अन्य स्थानों पर क्या असर पड़ रहा है?

यह तबाही केवल पहाड़ों तक सीमित नहीं है। पंजाब की कृषि भूमि जलमग्न हो गई है, जिससे लाखों लोग विस्थापित हुए हैं और आजीविका नष्ट हो गई है। अतिप्रवाह करने वाले बांधों ने भारत और सीमा पार पाकिस्तान में संकट को और बदतर कर दिया है। लंबे समय से बांधों को प्रगति के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया है, लेकिन बाढ़ को बढ़ाने में उनकी भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। बांध के गेट संकट के चरम पर ही क्यों खोले जाते हैं, जिससे नीचे की ओर तबाही बढ़ जाती है? इसकी गंभीर जांच होनी चाहिए। विशेषज्ञों को यह आकलन करना चाहिए कि बड़े और छोटे बांधों जैसे कृत्रिम हस्तक्षेपों ने प्राकृतिक बाढ़ों की तुलना में अधिक नुकसान पहुंचाया है या नहीं। सबूत तेजी से यह सुझाव दे रहे हैं कि ऐसा ही है।

राज्य सरकारों के लिए सच्चाई का सामना करने का समय आ गया है: उनके लोगों का भविष्य सुरंगें खोदकर, पहाड़ों को विस्फोट करके, या नदियों को निजी हाथों  को सौंपकर सुरक्षित नहीं किया जा सकता। मुख्यधारा का मीडिया इन असहज वास्तविकताओं पर बहस करने से कतराता हो , लेकिन नागरिकों को इस विनाशकारी मॉडल पर सवाल उठाते रहना चाहिए। हिमालयी राज्यों को ऐसा विकास चाहिए जो उनके स्थानीय और मूल निवासी समुदायों के सहयोग और भागीदारी के साथ हो । ऐसी कोई भी परियोजनाएं जो विकास के नाम पर पर्यावरण के नियमों की धज्जियां उड़ाएं  और  मुट्ठीभर ठेकेदारों, बिचौलियों और कॉरपोरेट मित्रों को समृद्ध करे, का जमकर विरोध होना चाहिए।  अक्सर, बुनियादी ढांचे को ठीक करने के लिए दिए गए   'ठेके' राजनीतिक एहसानों के रूप में दिए जाते हैं, जिनके मुनाफेदार  गुजरात और अन्य जगहों के व्यापारिक घरानों होते हैं, जबकि स्थानीय लोग पर्यावरणीय तबाही के अलावा और  कुछ नहीं पाते। ऐसे ठेके बंद होने चाहिए। जनता को ये जानने का अधिकार है कि किन लोगों को 'विकास' ये ठेके दिए गए और क्या वे सभी सुरक्षित हैं और मानकों पर खरे उतर रहे हैं या नहीं। विकाय की ऐसी ऐसी नीतियां जिनमे स्थानीय मूल निवासियों की भूमिका न के बराबर है, न केवल यहा के पर्यावरण को नष्ट करती हैं बल्कि हिमालय की सांस्कृति और इतिहास को भी हानि पँहुचाती है।  यदि लोकतंत्र का कोई अर्थ है, तो पहाड़ों के भविष्य के  बारे में निर्णय वहां रहने वाले लोगों के साथ संवाद में लिए जाने चाहिए, न कि ऊपर से थोपे जाने चाहिए।

हिमालय की पहड़िया और घाटियां अब हमे चेतावनी दे रही हैं कि बंद करो उनका दोहन और  शोषण । वो कह रही हैं कि यहा के मूल निवासी प्रकृति की पूजा करता था और उसके साथ सामंजस्य बना कर रहता था और अपनी सुकून भरी जिंदगी मे संतुष्ट था। अब 'विकास' की आंधी ने पहाड़ियों से पहाड़ छीन लिए और उसका गुस्सा भी देख रहे हैं। पहाड़ कह रहे हैं कि उनका  सम्मान करो, अपनी परम्पराओ की ओर लौटो और 'विकास' के नाम पर विनाशकारी व्यवसायिक आदत बादलों। हमारी नदिया और पहाड़ हमारी संस्कृति और स्वाभिमान है, इन पर अब अपनी ललचाई नजर मत डालो। पहाड़ ये कह रहे हैं, सुधर जाओ, वापस अपने मूल पर आओ।  ये समझ लीजिए कि जब तक हम अपना रास्ता नहीं बदलते, प्रकृति का रोष और अधिक गहरा होगा और लोगों को उसकी और भी अधिक  विनाशकारी विभीषिका का सामना करना पड़ेगा। प्रकृति का सम्मान करें और उसके साथ तालमेल कर ही हम अपना जीवन संतोष के साथ जी सकेंगे। 

शनिवार, 30 अगस्त 2025

दिल की गहराइयों मे डूब कर गाने वाले गायक थे मुकेश

 

27 अगस्त 1976 को डेट्रायट (अमेरिका) में हजारों की संख्या में लोग मुकेश और लता मंगेशकर के शो में उन्हें सुनने के लिए एकत्र हुए थे लेकिन कॉन्सर्ट के दौरान ही समाचार मिला कि मुकेश को दिल का दौरा पड़ा है तो सारे लोग अस्पताल की ओर चल पड़े। मुकेश को शायद अहसास था और इसीलिए वह अपने बेटे नितिन मुकेश से कह रहे थे कि यदि उनका गला नासाज है तो वह लता जी के साथ उनकी जगह पर गाना गाए और इसके लिए उन्होंने लता मंगेशकर को मना भी लिया था। उनके बेटे नितिन मुकेश बताते हैं : हमें उनकी तबीयत के विषय में पहले से कुछ पता नहीं था। हम अमेरिका में लताजी के साथ एक कॉन्सर्ट टूर पर थे। वह मेरे साथ कुछ समय बिताना चाहते थे इसलिए मुझे छुट्टी पर ले गए। संगीत कार्यक्रम से पहले उन्होंने असहज महसूस किया और लताजी से पूछा कि क्या मैं इसमें शामिल हो सकता हूं। उनके साथ गाना गाना मेरे लिए एक सपने के सच होने जैसा था। वह सहज ही मान गईं। वह बहुत खुश हुए जब दर्शकों ने मेरे गायन को पसंद किया और दोहराना चाहा। खुशी के मारे उनकी आँखों में आँसू थे। डेट्रॉयट में एक शो था और उन्हें सर्दी-जुकाम हो गया था। शो से पहले वह उठे और मुझे जगाने के लिए कुछ पंक्तियां गाईं और फिर नहाने के लिए बाथरूम चले गए लेकिन फिर बाहर निकले तो बेहोश हो गए। वह रामायण से प्यार करते थे और यह पुस्तक उनके पास हमेशा रहती थी। वह समर्पित थे। हमने उन्हें अस्पताल पहुंचाया। उनका स्वास्थ्य बिगड़ रहा था। उन्होंने मुझे रोते हुए देखा और मुझे सांत्वना दी। उन्होंने मेरा हाथ थाम लिया लेकिन अस्पताल के अंदर घुसने के कुछ मिनट बाद उनकी मौत हो गई। वह उनका पांचवां दिल का दौरा था। वह मधुमेह के रोगी थे लेकिन बहुत सक्रिय थे। ( द हिन्दू अखबार को दिए उनके इंटरव्यू से )

नितिन ने कार्यक्रम में मुकेश के अमर गीत को वहां पर गाया जो राज कपूर की फिल्म मेरा नाम जोकर से था I

इस दिल के आशिया में अब,/तेरे ख्याल ही रह गए,/तोड़ के दिल वो चल दिए,/हम फिर अकेले/रह गए/

जाने कहा गए वो दिन,/कहते थे तेरी राह में,/नज़रों को हम बिछाएंगे,/चाहे कहीं भी तुम रहो,/चाहेंगे तुम को उम्र भर/

तुमको न भूल पाएंगे।

मुकेश चंद्र माथुर का जन्म पुरानी दिल्ली के इलाके मे 22 जुलाई 1923 को  हुआ था। उनके पिता जोरावर चंद और माँ चंद्राणी माथुर थीं। दस भाई-बहनों के परिवार में उनका छठवाँ नंबर था। उनके घर पर संगीत के एक अध्यापक उनकी बहन को संगीत सिखाने आते थे और मुकेश भी धीरे-धीरे उनसे संगीत की शिक्षा लेने लगे। उस जमाने के प्रसिद्ध अभिनेता मोतीलाल की नजर एक कार्यक्रम में मुकेश पर पड़ी और फिर वह उन्हें बम्बई ले आए। 1941 में उन्हें फिल्म निर्दोष में बतौर अभिनेता लिया गया जहा उन्होंने स्वयं के लिए दिल ही बुझा हुआ तो गीत गाया जो उनके जीवन का प्रथम गीत माना जाता है। मुकेश का एक्टिंग का करिअर तो ज्यादा नहीं चल पाया लेकिन अभिनेता मोतीलाल ने उन्हें 1945 में अपनी फिल्म पहली नजर के लिए संगीतकार अनिल विश्वास के निर्देशन में दिल जलता है तो जलने दे, आँसू न बहा फ़रियाद न कर  गाया जो बेहद लोकप्रिय हुआ। इस गाने में लोगों ने मुकेश में उस दौर के नामी गायक कुंदनलाल सहगल की छवि देखी। मुकेश की आवाज बेहतरीन थी लेकिन उनकी समझ में आ गया कि यदि अपनी कोई स्वतंत्र आवाज नहीं बनी तो वे बहुत दूर तक नहीं चल पाएंगे। दरअसल उस दौर में के एल सहगल सभी कलाकारों के हीरो होते थे और जो भी नया गायक बम्बई आता वह सहगल साहब की आवाज की ही ‘नकल’ करता। मुकेश तो छोड़िए, किशोर कुमार तक के पसंदीदा गायक कलाकार सहगल ही रहे और उन्होंने भी प्रारंभ में सहगल की नकल करने की कोशिश की।

मुकेश की आवाज को स्वतंत्र अभिव्यक्ति प्रदान कराने वालों में सबसे पहले आए नौशाद, जिनकी 1948 में आई फिल्म मेला ने उन्हें लोगों में लोकप्रिय बना दिया। इस फिल्म का गीत  गाए जा गीत मिलन के, तू अपनी लगन के, सजन घर जाना है  ने मुकेश की आवाज को घर-घर पहुंचा दिया। 1948 मे ही आई फिल्म अनोखी अदा में पुनः मुकेश की आवाज ने नौशाद के संगीत निर्देशन में धूम मचाई। इसका गीत  मंजिल की धुन में झूमते गाते चले चलो, बिछड़े हुए दिलों को मिलाते चले चलो और  ये प्यार की बाते, ये सफर भूल न जाना  बहुत लोकप्रिय हुए। मुकेश लोकप्रियता को छू रहे थे और इसीलिए 1949 महबूब खान की फिल्म अंदाज में संगीतकार नौशाद की धुनों पर मुकेश की आवाज ने सभी जगह धूम मचा दी। इस फिल्म में दिलीप कुमार और राजकपूर पहली बार साथ आए और यह उनकी एकमात्र फिल्म रही। हालांकि फिल्म में मोहम्मद रफी की आवाज भी थी लेकिन इस फिल्म के मुकेश के गाए सभी गीत जबरदस्त हिट रहे। झूम-झूम के नाचो आज, गाओ आज, गाओ खुशी के गीत, आज किसी की हार हुई है, आज किसी की जीत रे, गाओ खुशी के गीत रे  और तू कहे अगर, तू कहे अगर जीवन भर, मैं गीत सुनाता जाऊं, मन बीन बजाता जाऊं  लोकप्रियता के पायदान पर बहुत आगे चले गए।

राजकपूर की आवाज 

हालांकि राजकपूर की पहली फिल्म नील कमल में मुकेश ने प्लैबैक दिया था,लेकिन वह राजकपूर की फिल्म आग से जिसका गीत ‘जिंदा हूँ इस तरह कि गमे-जिंदगी नहीं, जलता हुआ दिया हूँ मगर रौशनी नहीं लोगों के दिलों में पहुँच गया। लेकिन राज कपूर और मुकेश का चोली-दामन का रिश्ता बना, 1949 में आई राजकपूर की फिल्म बरसात से, जिसमे मुकेश का लता मंगेशकर के साथ  का  गीत छोड़ गए बालम, हाये प्यार भरा दिल तोड़ गए  में लोगों ने उनकी आवाज को सराहा। धीरे-धीरे मुकेश ने राजकपूर के लिए गाए गीत इतने लोकप्रिय हुए कि दोनों को एक दूसरे के बिना पहचानना संभव नहीं था और मुकेश को राजकपूर ने अपने बाहर की फिल्मों में भी प्लैबैक के लिए आमंत्रित किया। 1950 की फिल्म बावरे नैन में उनका ये गीत बेहद खुबसूरत है : तेरी दुनिया में दिल लगता नहीं, वापस बुला ले, मैं सजदे गिरा हूँ, मुझे ए मालिक उठा ले। 

1951 में राज कपूर की फिल्म आवारा ने मुकेश के गायन को एक नई ऊंचाई दी। न केवल उनकी फिल्म आवारा विश्व पटल पर छा गई अपितु फिल्म का गीत, आवारा हूँ, या गर्दिश में हूँ, आसमान का तारा हूँ’ भी रूस, चीन और बहुत से अन्य देशों में बेहद लोकप्रिय हुआ। यह कह सकते हैं कि यह गीत भारत का पहला अंतर्राष्ट्रीय गीत बन गया। इसी फिल्म में राज कपूर पर फिल्माया मुकेश का एकल गीत हम तुझसे मुहब्बत करके सनम, रोते भी रहे, हँसते भी रहे  बहुत चला लेकिन जो दूसरा गीत मुकेश और लता मंगेशकर ने गया वह तो आज भी प्रेम का बेहतरीन नमूना है : दम भर जो उधर मुंह फेरे, ओ चन्दा, /मैं उनसे प्यार कर लूँगा, नजरे तो चार कर लूँगा। राज कपूर के लिए मुकेश ने बेहद संजीदा गीत गाए। श्री चार सौ बीस में  मेरा जूता है जापानी, फिल्म आह में आजा रे, अब मेरा दिल पुकार, रो-रो के गम भी हारा, फिल्म संगम में मेरे मन की गंगा और तेरे मन की जमना का, बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं,  दोस्त-दोस्त न रहा, प्यार-प्यार न रहा, जिंदगी हमें तेरा, एतबार न रहा,  ओ महबूबा, ओ महबूबा, तेरे दिल के पास ही मेरी मंज़िले मकसूद, वो कौन सी महफ़िल है जहाँ तू नहीं मौजूद । 

राजकपूर की फिल्म जिस देश में गंगा बहती है में भी मुकेश ने अपनी सुरीली आवाज का जादू बिखेरा। शैलेन्द्र का लिखा होंठों पे सच्चाई रहती है, जहाँ दिल में सफाई रहती है, हम उस देश के वासी हैं, जिस देश में गंगा बहती है  ने देश के मन की बात समझी और उसकी भावनाओं को प्रकट किया और यह मुकेश के स्वर में ही सफल होता है और सच्चा लगता है, जब वह गाते हैं  कुछ लोग जो ज्यादा जानते हैं, इंसान को कम पहचानते हैं, ये पूरब है, पूरब वाले, हर जान की कीमत जानते हैं, हर जान की कीमत जानते हैं, मिल जुल के रहो और प्यार करो, एक चीज यही जो रहती है, हम उस देश के वासी हैं, जिस देश में गंगा बहती है।

जिस देश मे गंगा बहती है में मुकेश अपने पूरे शबाब पर थे। शैलेन्द्र, शंकर जयकिशन, मुकेश और राजकपूर ने अपने सार्थक गीतों, संगीत और आवाज से एक नई उम्मीद पैदा की। राज कपूर पर फिल्माया गया आ अब लौट चलें, नैन बिछाए, बाहें पसारे, तुझको पुकारे देश तेरा…. और इस गीत की इन पंक्तियों को जैसे शैलेन्द्र ने लिखा और मुकेश ने स्वर दिया वह अप्रतिम है : ‘आँख हमारी मंजिल पर है,/ दिल में खुशी की मस्त लहर है,/लाख लुभाए महल पराए,/अपना घर तो अपना घर है।

यह आज भी हम सबके लिए एक ऐसा सच है जिसे जब परदेश में होते है तब समझते हैं।

राजकपूर के लिए मुकेश ने आर के बैनर्स के बाहर भी बहुत से खूबसूरत गीत गाए। फिल्म अनाड़ी में  सब कुछ सीखा हमने, न सीखी होशियारी, सच है दुनिया वालों के हम हैं अनाड़ी ,  या लता मंगेशकर के साथ  दिल की नजर से गीत बहुत पसंद आए लेकिन इस फिल्म का शैलेन्द्र का लिखा एक गीत मुकेश की इमॉर्टल आवाज ने अमर कर दिया —

किसी कि मुस्कुराहटों पे हो निसार,/किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार,/किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार,/जीना इसी का नाम है।

राजकपूर की एक गुमनाम फिल्म थी दूल्हा-दुल्हन जिसके लिए कल्याणजी-आनंदजी के संगीत में मुकेश ने इतनी खूबसूरती से गाया कि आज भी हम उस दर्द को महसूस करते हैं —

हमने तुझको प्यार किया है जितना,/कौन करेगा उतना,/रोए भी तो दिल ही दिल में/महफ़िल में मुस्काए,/तुझसे ही हम,/तेरा ही गम,/बरसों रहे छुपाये,/प्यार में तेरे चुपके -चुपके,/जलते रहे हम जितना,/कौन जलेगा इतना।

ऐसा नहीं था कि मुकेश ने केवल राजकपूर के लिए ही गीत गाए। दिलीप कुमार के लिए भी उन्होंने बहुत हिट गीत दिए। फिल्म यहूदी में ये मेरा दीवानापन है, या मोहब्बत का सुरूर, तू न पहचाने तो है ये, तेरी नजरों का कुसूर, उस भाव को बेहतरीन तरीके से व्यक्त करता है जिसके लिए दिलीप कुमार पहचाने जाते थे। बाद में सलिल चौधरी के संगीत में मुकेश ने मधुमती फिल्म के लिए अपनी आवाज दी और उनके सभी गीत उस दौर में सुपर-डूपर हिट हुए। सुहाना सफर और ये मौसम हंसीं, हमें डर है हम खो न जाए कहीं…..  या दिल तड़प-तड़प के कह रहा है आ भी जा, तू हमसे आँख न चुरा, तुझे कसम है आ भी जा….  ने लोकप्रियता के नए आयाम कायम किए।

संगीतकारों में मुकेश ने सबसे ज्यादा गीत शंकर-जयकिशन के लिए गाए। उनकी जोड़ी तो अमर थी लेकिन उसके अलावा उन्होंने कल्याणजी-आनंदजी और लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के संगीत निर्देशन में भी बहुत गीत गाए।

दर्द में आनंद की अनुभूति थे मुकेश

वैसे मुकेश ने देवानंद के लिए कोई गीत नहीं गाया लेकिन उनकी एक फिल्म बंबई का बाबू के लिए मुकेश का एक गीत जो बैकग्राउंड में फिल्माया गया था अमर हो गया हालांकि बंबई का बाबू नामक फिल्म को आज कोई याद नहीं रखता लेकिन चल री सजनी, अब क्या सोचे, कजरा न बह जाए रोते रोते  अभी भी लोगों में उस दौर के दर्द गहरे स्वर का एहसास दिलाता है।

1959 मे आई फिल्म छोटी बहन जिसमें शंकर-जयकिशन के संगीत निर्देशन में उन्होंने हसरत जयपुरी के बोल को बेहद खूबसूरत तरीके से गया। यह गीत था —

जाऊं कहाँ बता ऐ दिल/ दुनिया बड़ी है संगदिल,/चाँदनी आई घर जलाने,/सूझे न कोई मंजिल…. 

इसी वर्ष 1959 में उन्होंने राजकपूर के लिए फिल्म कन्हैया के लिए गाया — याद आई आधी रात को,/कल रात की तौबा,/दिल पूछता है झूम के,/किस बात की तौबा…. 

इस फिल्म का जो गीत बहुत हिट हुआ वह बहुत हल्का-फुल्का गाना था

रुक जा ओ जाने वाली रुक जा,/मैंतो राही तेरी मंजिल का,/नज़रों में तेरी मैं बुरा सही,/आदमी बुरा नहीं मैं दिल का …. 

1959 में ही मुकेश का एक गीत और बेहद लोकप्रिय हुआ जो उन्होंने राजकपूर के लिए गाया था, फिल्म थी मैं नशे में हूँ —

जाहिद शराब पीने दे,/मस्जिद में बैठ कर,/या वो जगह बता दे ,/जहाँ  पर खुदा न हो,/ मुझको यारो माफ करना,/मैं नशे में हूँ….. 

दरअसल दर्द मुकेश की सबसे बड़ी ताकत थी। उनके स्वर के दर्द को लोग रूह से महसूस करते थे इसलिए अगर उनके मीठे गीत थे तो उनके भी दर्द के सुर थे और कल्याणजी-आनंदजी की संगीत में वह बेहतरी से आया। 1960 में आई फिल्म दिल भी तेरा हम भी तेरे का गीत मुझको इस रात की तनहाई में आवाज न दो, आवाज न दो, आवाज न दो …जिसकी आवाज रुला दे मुझे वो साज न दो, आवाज न दो ….. अभी भी उनके सबसे खूबसूरत दर्द भरे गीतों में से एक है। हिमालय की गोद में फिल्म के लिए उन्होंने मनोज कुमार के लिए बेहद भावपूर्ण गीत गाए। मैं तो एक ख्वाब हूँ, इस ख्वाब से तू प्यार न कर, प्यार हो जाए तो प्यार का इजहार न कर  या तेरी याद दिल से भुलाने चला हूँ, मै खुद अपनी हस्ती मिटाने चला हूँ’, या चाँद सी महबूबा हो मेरी कब, ऐसा मैंने सोचा था, हाँ तुम बिल्कुल वैसी हो, जैसा मैंने सोचा था। मनोज कुमार की फिल्म उपकार के लिए कल्याणजी-आनंदजी के निर्देशन में उन्होंने दीवानों से ये मत पूछो, दीवानों पे क्या गुजरी है  गाया। कल्याणजी भाई के संगीत में उन्होंने ऐसे गीत दिए जिन्हें कोई भूल नहीं सकता। खुश रहो हर खुशी है तुम्हारे लिए  फिल्म सुहागरात, चांदी की दीवार न तोड़ी, प्यार भरा दिल तोड़ दिया … फिल्म विश्वासकोई जब तुम्हारा हृदय तोड़ दे, तड़पता हुआ जब कोई छोड़ दे, तब तुम मेरे पास आना प्रिये, मेरा दर खुला है, खुला ही रहेगा तुम्हारे लिए,  फिल्म पूरब और पश्चिम,  दर्पण को देखा, तूने जब जब किया सिंगार  फिल्म उपासना, जो तुमको हो पसंद वही बात कहेंगे और  क्या खूब लगती हो, फिल्म सफरवक्त करता जो वफा आप हमारे होते, हम भी औरों की तरह आपको प्यारे होते  फिल्म दिल ने पुकारा

अपने समकालीन कलाकारों में मुकेश की आवाज की एक सीमा थी लेकिन इसके बावजूद यह हकीकत है कि जितना उन्होंने गाया उनके हिट गानों का प्रतिशत बहुत ज्यादा है। सभी गायक कलाकारों ने अपने समय में बहुत से बेहूदा और बकवास गाने गाए, लेकिन मुकेश के संदर्भ में यह कहना पड़ेगा कि अपने अंत तक ऐसे गीतों की संख्या केवल उंगली पर गिनी जा सकती थी। कल्याणजी-आनंदजी के संगीत में सरस्वतीचंद्र फिल्म के लिए उनके दो गाने आज भी हमारे दिलों पर राज करते हैं —  चन्दन सा बदन, चंचल चितवन, धीरे से तेरा ये मुस्काना, मुझे दोष न देना जग वालों, हो जाऊ अगर मैं दीवाना और दूसरा गीत लता मंगेशकर के साथ  फूल तुम्हें भेजा है खत में बेहद मधुर हैं। 1963 की फिल्म फूल बने अंगारे में कल्याणजी-आनंदजी ने मुकेश के साथ एक और जबरदस्त धुन बनाई। यह गीत था चाँद आहे भरेगा, फूल दिल थाम लेंगे, हुस्न की बात चली तो सब तेरा नाम लेंगे।  ऐसे कितने ही गीत हैं जो मुकेश के मीठे गले से अमर हो गए चाहे फिल्म चली हो या न चली हो।

हम छोड़ चले हैं, महफ़िल को याद आए कभी तो मत रोना  फिल्म जी चाहता है, आया है मुझे अब याद वो जालिम, गुजरा- जमाना बचपन का …. फिल्म देवर, डम डम डिगा डिगा, मौसम भीगा भीगा, बिन पिए मैं तो गिरा, मैं तो गिरा, फिल्म छलिया। इसी फिल्म का एक और खूबसूरत गीत मेरे टूटे हुए दिल से कोई तो आज ये पूछे कि तेरा हाल क्या है ।  पुरानी फिल्म रानी रूपमती को शायद ही कोई याद रखे लेकिन इसका एक गीत मुकेश ने अमर कर दिया और वह है आ लौट के आज मेरे मीत, तुझे मेरे गीत बुलाते हैं। फिल्म संजोग 1961 में आई जिसका संगीत मदन मोहन ने दिया और राजेन्द्र कृष्ण के इस गीत में मुकेश की आवाज ने जो अभिव्यक्ति दी वो किसी दूसरे के बस की बात नहीं —

 दामन में लिए बैठा हूँ,/टूटे हुए तारे,/कब तक रहूँगा मैं यूँ ही,/ख्वाबों के सहारे,/दीवाना हूँ,/अब और न दीवाना बनाओ,/अब चैन से रहने दो,/मेरे पास न आओ,/भूली हुई यादों,/मुझे इतना न सताओ

इसमें कोई शक नहीं कि गीत के बोल बेहद महत्वपूर्ण होते हैं लेकिन उतना ही महत्व का होता है गायक की समझ, उसके  उच्चारण और बोल के भावों पर उतार-चढ़ाव का। इस गीत को सुन लीजिए या फिर 1963 मे बनी फिल्म बंदिनी के इस गीत को जिसे एस डी बर्मन ने संगीतबद्ध किया तब पता चलेगा कि दर्द में मुकेश का कोई सानी नहीं था —

दे दे के ये आवाज कोई,/हर घड़ी बुलाए,/फिर जाए जो उस पार/ कभी लौट के न आए,/है भेद ये कैसा कोई,/कुछ तो बताना,/जाने वाले हो सके तो/लौट के आना।

मुकेश की आवाज में वो कशिश थी जो उन्हे दूसरों से अलग करती थी। ऐसा नहीं है कि उन्होंने दर्द के अलावा कुछ नहीं गाया। उनके अल्हड़पन के गीत भी बहुत खूबसूरत हैं। उन्होंने जो भी गाए, उनमें एक मिठास थी, एहसास था। मुकेश का यह एहसास का पक्ष बहुत ताकतवर रहा है और इसीलिए बहुत बड़े-बड़े क्लासिकल संगीत के दिग्गज गायकों के बावजूद, बहुत कम गाने पर भी, उन्हें लोग आज भी भारत के तीन सर्वश्रेष्ठ गायक कलाकारों में एक मानते है, ये हैं — मोहम्मद रफी मुकेश और किशोर कुमार।

मुकेश ने जो युगल गीत गाए वे भी बेहद मिठास लिए हुए हैं। लता मंगेशकर के साथ उनके अधिकांश युगल गीत बेहद हिट हुए। राजकपूर की फिल्मों के लिए तो उनके बहुत सारे युगल गीत हिट हुए ही लेकिन बाद के दौर में भी सुनीलदत्त, मनोज कुमार, जितेंद्र, धर्मेन्द्र, अमिताभ बच्चन, राजेश खन्ना जैसे नायकों के लिए भी उन्होंने बहुत ही मीठे और भावपूर्ण नगमे दिए। सुनीलदत्त और नूतन की फिल्म मिलन का सावन का महीना पवन करे शोर तो आज भी सबसे लोकप्रिय गीतों में है लेकिन इसी फिल्म का दूसरा गीत सीधे दिल पर उतर जाता है वह है — राम करे ऐसा हो जाए, मेरी निंदिया तोहे मिल जाए, मै जागू तू सो जाए’।

1972 में आई फिल्म शोर के लिए संतोष आनंद द्वारा लिखित एक प्यार का नगमा है, मौजों की रवानी है, जिंदगी और कुछ भी नहीं, तेरी मेरी कहानी है को मुकेश की दिल छू लेने वाली आवाज ने अमर कर दिया। इसमे कोई शक नहीं कि संतोष जी ने इस गीत में पूरे जीवन का मंत्र भर दिया पर मुकेश की दिलकश वाणी ने इसे और अधिक अमर कर दिया। जब भी इस गीत की धुन बजती है और मुकेश का स्वर आता है तो वह क्षण सबकी आँखों मे आँसू ला सकता है।

तू धार है नदिया की/मैं तेरा किनारा हूँ/तू मेरा सहारा है/मैं तेरा सहारा हूँ/आँखों में समंदर है/
आशाओं का पानी है/ज़िंदगी और कुछ भी नहीं/तेरी मेरी कहानी है/एक प्यार का नगमा है…. 

मुकेश के युगल गीत लता मंगेशकर के अलावा आशा भोंसले और गीतादत्त के साथ भी हैं। लता के साथ, एक मंजिल राही दो, फिर प्यार न कैसे हो …. जाने न नजर, पहचाने जिगर, ये कौन जो दिल में समाया, मुझे रोज-रोज तड़पाया…. आ जा रे अब मेरा दिल पुकारा, रो-रो के गम भी हारा, बदनाम न हो दिल मेरा… 

आशा भोंसले के साथ मुकेश ने कुछ बेहद खास गीत गाए। 1961 में आई फिल्म कांच की गुड़िया में साथ हो तुम और रात जवाँ….  आपके दिल में प्यार की ताकत का अहसास कराता है। 1961 की ही फिल्म प्यार का सागर का टाइटल सॉन्ग भी आशा जी के साथ गया है। 1961 में शंकर-जयकिशन के संगीत में जंगली का गाना  नैन तुम्हारे मजेदार, ओ जनाब ए आली आदि हैं।

ऐसे ही गीतादत्त के साथ उनके कुछ गीत बेहद लोकप्रिय हुए। 1950 की फिल्म बावरे नैन में खयालों में किसी के इस तरह आया नहीं करते, किसी को बेवफा आ-आ के तड़पाया नहीं करते, 1960 की फिल्म अपना घर में , तुमसे ही मेरी जिंदगी मेरी बहार तुम, अपने ही दिल से पूछ लो, किसका हो प्यार तुम आदि हैंI इतने युगल गीतों के बावजूद मुकेश सबसे अच्छे और भावपूर्ण अपने एकल गायन में लगते है, हालांकि युगल गीतों में भी उन्होंने अपने दिल से गाया है।

एक हकीकत यह है कि बंबई सिनेमा में मुकेश के स्वर से सबसे खूबसूरत और अमर गीत निकले और यह मान सकते हैं कि कोई दूसरा कोई उन्हें नहीं गा सकता था। उनकी तमाम सीमाओं के बावजूद मुकेश की आवाज में जो कशिश और दर्द था वह एक सुखद अनुभूति देता था। वह हर रोमांस के अंदर एक अलग किस्म की मिठास पैदा करता था। कभी-कभी के लिए खैय्याम के संगीत निर्देशन में उनके गीत आज तक संगीत के शिखर पर हैं।

कभी कभी मेरे दिल मे/ख्याल आता है,/कि जैसे तुझको बनाया गया है/मेरे लिए…. 

और साहिर के इन खूबसूरत बोलों को मुकेश ने कैसे अमर किया देखिए —

कल और आएंगे,/सुख दुख की/मीठी कालिया चुनने वाले,/मुझसे बेहतर कहने वाले,/तुमसे बेहतर सुनने वाले,/कल कोई मुझको याद करे,/क्यों कोई मुझको याद करे,/बेदर्द जमाना मेरे लिए,/क्यूँ वक्त अपना बर्बाद करें/मैं पल दो पल का शायर हूँ,/पल दो पल मेरी कहानी है,/पल दो पल मेरी हस्ती है,/पल दो पल मेरी  जवानी है …. 

भावपूर्ण गीत गाने में मुकेश का कोई सानी नहीं था। शैलेन्द्र भी उस बात को जानते थे और राजकपूर भी। शैलेन्द्र की फिल्म तीसरी कसम में उन्होंने जो गीत गाये वे आज भी हमारे होंठों पर हैं —

दुनिया बनाने वाले,/क्या तेरे मन मे समाई,/काहे को दुनिया बनाई

या

तुम्हारे महल चौबारे,/यही रह जाएंगे प्यारे,/अकड़ किस बात की प्यारे,/अकड़ किस बात की प्यारे,/ये सर फिर भी झुकाना है,/सजन रे झूठ मत बोलो,/खुदा के पास जाना है,/न हाथी है, न घोड़ा है,/वहाँ पैदल ही जाना है । इसी फिल्म में जो अन्य गीत हमारे दिलों पर उतरा वो था विरह का गीत —

सजनवा बैरी हो गए हमार,/चिठिया हो तो बाँचे कोई,/भाग न बाँचे कोय,/करमवा बैरी हो गए हमार … 

1958 में राजकपूर की आर के बैनर्स से बाहर की फिल्म फिर सुबह होगी में गीत साहिर लुधियानवी ने लिखे और म्यूजिक खैयाम का था जिसके गीतों को मुकेश ने इतनी संजीदगी और भावपूर्ण तरीके से गाया कि वे आज भी हमारे होंठों पर होते हैं। साहिर की खूबसूरत नज़मों को मुकेश के सुरीले गले ने अमर कर दिया और ये गीत आज भी हमें उम्मीद देते हैं। वो सुबह कभी तो आएगी हर दौर के लिए एक आशा का संदेश देने वाला गीत बना। हमारे समाज की हकीकत को बयाँ करता एक और गीत था —

चीनो अरब हमारा,/हिंदोस्ता हमारा,/रहने को घर नहीं है/सारा जहाँ हमारा।

मुकेश ने एक हजार के लगभग गीत गाए जो उनके समकालीन कलाकारों की तुलना में बहुत कम है, लेकिन जो भी गीत उन्होंने गाए वो क्वालिटी गीत थे और उनमें उन्होंने अपना पूरा जिगर खोल के रख दिया इसलिए उनके हिट गीतों का प्रतिशत ज्यादा है।

राजेश खन्ना के उस दौर में जब वे किशोर कुमार का ही गाना लेते थे तब मुकेश ने अपनी आवाज से ऐसे गीत दिए कि कोई उन्हें भुला नहीं सकता। फिल्म आनंद में योगेश के गीतों को सलिल चौधरी के संगीत में जिस प्रकार मुकेश ने गाया वह  अप्रतिम है और फिल्म की सफलता में इसके गीतों का बहुत बड़ा योगदान है। मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने, सपने सुरीले सपने और कहीं दूर जब दिन ढल जाए, साँझ की दुल्हन बदन चुराए, चुपके से आए। 

1968 में आई अनोखी रात  फिल्म का संजीव कुमार पर फिल्माया गीत ओ रे ताल मिले नदी के जल में, नदी मिले सागर में, सागर मिले कौन से जल में, कोई जाने ना हो या 1967 में जितेंद्र की बूंद जो बन गए मोती फिल्म का भरत व्यास का लिखा ये दिल को छू लेने वाला गीत —

हरी-हरी वसुंधरा पे,/नीला-नीला ये गगन,/कि जिसके बादलों की पालकी उड़ा रहा पवन,/दिशाएं देखो रंगभरी/चमक रहीं उमंग भरी/ये किस ने फूल-फूल पे किया सिंगार है/ये कौन चित्रकार है/ये कौन चित्रकार है/ये कौन चित्रकार है… 

ऐसा ही एक अन्य खूबसूरत गीत जिसे मजरूह सुल्तानपुरी ने लिखा और मुकेश की आवाज ने अमर कर दिया —  तारों में सजके, अपने सूरज से/ देखो धरती चली मिलने

मुकेश की आवाज ने हम सबको प्रभावित किया। शैलेन्द्र और राजकपूर के लिए उन्होंने जो गाया वो गीत उनकी आवाज के बिना वैसे ही रहते शायद कहना मुश्किल होगा। लेकिन एक बात सत्य है कि मुकेश की गहरी आवाज, जिसे पहले लोग ये कह देते थे कि नाक से गाया है, उनकी सबसे बड़ी ताकत बनी।उनका भोलापन और सादगी उनके गानों में झलकती है। राजकपूर की फिल्म धरम करम का ये गीत आज भी हम सबको जीवन का संदेश देता है—

एक दिन बिक जाएगा, माटी के मोल,/जग में रह जाएंगे, प्यारे तेरे बोल/दूजे को होंठों को देकर अपने गीत,/कोई निशानी छोड़, फिर दुनिया से डोल….,

मुकेश हमारे बीच नहीं हैं लेकिन अपने गीतों से वो हमें प्यार और आशा का संदेश देते रहते हैं। मुकेश कभी मरते नहीं हैं, वे  तो लोगों को जीवन देते हैं। भारतीय क्रिकेट की स्पिन तिकड़ी के सबसे महत्वपूर्ण स्तम्भ भागवत चंद्रशेखर कर्नाटक से आते थे और हिन्दी से उन्हें कोई लेना-देना नहीं था लेकिन मुकेश की आवाज का जादू इतना था कि चंद्रशेखर उनके गानों से नई ऊर्जा लेते थे। मुकेश के निधन के बाद चंद्रशेखर की भी खेल मे दिलचस्पी कम हो गई और उन्होंने खेल से अवकाश ले लिया। मुकेश की मधुर आवाज ने हम सबको संगीत के जरिए जीने की कला दी, निराशा में आशा का संचार किया। ऐसे बहुत कम लोग हैं जिन्होंने दिल से गाया और लोगों ने उन्हे सर-आँखों पर बिठाया। मुकेश ऐसे ही थे और अपने गीतों के जरिए हमेशा हमारे बीच रहेंगे — कल खेल में हम हों न हों,/गर्दिश में तारे रहेंगे सदा,/भूलेंगे वो ,भूलोगे तुम/ पर हम तुम्हारे रहेंगे सदा/रहेंगे यहीं अपने निशां/इसके सिवा जाना कहाँ

पेरियार और उत्तर भारत के साथ उनका संबंध

  विद्या भूषण रावत    हालांकि पेरियार दलित बहुजन कार्यकर्ताओं के बीच एक जाना-माना नाम है , लेकिन यह भी सच है कि उत्तर भारत के अधिकांश लो...